मधुकर राव मोघे ब्यूरो चीफ कानपुर
अक्रॉस टाइम्स हिंदी समाचार पत्र
कानपुर । कुश्तियाँ लड़ने, लड़ने- झगड़ने से शरीर का बल बढ़ता है, मुश्किल सवाल हल करने से बुद्धि का बल बढ़ता है, वैसे ही प्राप्त परिस्थिति से संघर्ष करते हुए भी शांत रहने से आत्मबल बढ़ता है। सदगुरू ब्रह्म चैतन्य गोद ले महाराज कहते थे आत्मबल बढ़ना यानी देहबुद्धि का प्रमाण कम होना है। और ऐसा हमारा मनोबल, आत्मबल बढ़े इसलिये ईश्वर संकट भेजते हैं। लेकिन हम संकटों से घबराते हैं। तो क्या करें? ऐसी स्थिति में संकट वापस लेने में हमारा ही अहित हैं। भगवान को तुम्हारा हित किस में है यह ठीक समझ में आता है। संकट अविचल होकर भोगने में पुरुषार्थ है। बीमारी आने पर दवा जरुर लें लेकिन दवा से लाभ या हानि परमात्मा की कृपा से होती है। दवा से एक को लाभ होता है दूसरे को नहीं होता। जिससे जिसका हित होने वाला है वह परमात्मा करता है इसे याद रखें। तुम एक ही काम करो, परमात्मा की शरण में जाकर उससे प्रार्थना करो कि ‘मुझे संकट सहने की शक्ति दो, मेरी शांति भंग मत होने दो। तुम्हारा स्मरण मुझे निरंतर होता रहे।‘ बीमारी सहनी ही है तो उसे शांति से क्यों न सहें? उससे तुम्हारे सिरपर प्रारब्ध का जो बोझ है वह उतनी मात्रा में क्या कम नहीं होगा? बीमारी आने पर उसकी उपेक्षा करें, तब वह अपने आप कम हो जाएगी। मैं यानी कोई हूँ यह जैसे हमें अपने अस्तित्व के बारे में आत्मविश्वास होता है वैसा विश्वास हमें भगवान के बारे में होना चाहिये कि भगवान हैं। हमारे सद्गुरु भगवान ही हैं। जब हमारा ऐसा दृढ़ विश्वास होगा तब हम कह पाएँगे कि हमारी सद्गुरु के प्रति श्रद्धा है। मेरी सेवा जो तुम करते हो वह अपनी देहबुद्धि की करते हो, तुम्हें जो पसंद आता है वह तुम करते हो। वास्तव में मेरी सेवा करने का मतलब होता है जो मुझे पसंद है वह करना, मेरी आज्ञा में रहना, नाम-स्मरण करना, सभी प्राणियों में भगवान ही है ऐसा मानकर किसी को भी पीड़ा न देना, और जो सब होता है वह सब ईश्वर की शक्ति से होता है ऐसा मानना। मेरे कहने का तुमपर जो असर नहीं होता उसके दो कारण हो सकते हैं -- एक यह कि तुम्हारे भीतर परिवर्तन कराने की शक्ति ही शायद मुझमें नहीं होगी या दूसरा कारण यह भी हो सकता है, तुम अपने में परिवर्तन कराने का अभ्यास ही नहीं करते। जो भी हो परमार्थ के लिये एकदम परिवर्तन हो जाना भी अच्छा नहीं है। मानो किसी को आज १०५° बुखार है और कल अचानक ९५° बुखार हो जाए तो वह भी अच्छा नहीं है। वैसे ही मनुष्य स्वभाव से बड़ा क्रोधी है और कब एकदम शांत हो जाए तो वह भी अच्छा नहीं है। हम में धीरे धीरे परिवर्तन होना चाहिेए और वह भी विवेक से होना।
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