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Monday, May 20, 2019

गजल किंग पद्मश्री पंकज उदास ने किया नक्काश का म्यूजिक लान्च,फ़िल्म 31 मई को होगी रिलीज

फ़िल्म की स्टार कास्ट के साथ शायर आलोक श्रीवास्तव भी मौजूद रहे

पंकज उदास ने कहा कि दिलों को जोड़ने वाले ऐसे गानो का बनना जरूरी

मुंबई। कटेंट और स्ट्रांग स्टोरी की वजह से चर्चा में आई फिल्म नक्काश का म्यूजिक मुंबई में मशहूर गज़ल गायक पद्मश्री पंकज उदास ने लांच किया। इस मौके पर फिल्म के डायरेक्टर ज़ैग़म इमाम, प्रोड्यूसर पवन तिवारी गोविंद गोयल स्टार कास्ट इनामुलहक, शारिब हाशमी और कई जाने माने चेहरे मौजूद थे। पंकज उदास ने नक्काश के मेन टाइटिल सांग "वो दौर दिखा जिसमें इंसान की खूशबू हो, इंसान की सांसों में ईमान की खूशबू हो" की जमकर तारीफ़ की और कहा कि ऐसे गानें दिलों को जोड़ते हैं इनमें मिट्टी की खूशबू है इसलिए इनका बनना बेहद जरूरी है। उन्होंने इस गीत को लिखने वाले शायर आलोक श्रीवास्तव की तारीफ भी की कहा कि आलोक की गजलें इंसानियत को बढ़ावा देने वाली होती हैं। फिल्म के इस गाने का टीज़र सोशल मीडिया पर काफी सराहा जा रहा है। मीडिया बात करते हुए आलोक श्रीवास्तव  ने कहा कि ये गज़ल जब मैंने लिखी तो ये जरूर लगा कि इसे कोई बड़ा प्लेफॉर्म मिलना चाहिए और नक्काश के जरिए ऐसा हो गया। नक्काश सामाजिक सरोकारों से जुड़ी एक बेहतरीन फिल्म है और मेरा गाना इस फिल्म का हिस्सा है ये खुशी की बात है। इस गाने के जरिए लोग इंसानियत को महसूस कर सकते हैं। इस गानों को बच्चों ने गाया है। फिल्म के म्यूजिक डायरेक्टर अमन पंत ने कहा कि गाने के बोल अच्छे थे और हम काफी दिनों तक ये सोचते रहे कि इसे आखिर कैसे रिकॉर्ड किया जाए आखिर में ये विचार आया कि इसे बच्चों की प्रार्थना का रूप दिया जाए। हमने ऐसा किया और ये प्रयोग सफल रहा। नक्काश के डायरेक्टर जैगम इमाम ने इस गाने को फिल्म में लेने के बारे बताया कि पहली बार में मैंने इस गाने की एक लाइन आलोक श्रीवास्तव के ट्विटर हैंडल पर देखी थी तब से से दिमाग में ये बात थी कि इसे नक्काश में शामिल करना है। नक्काश 31 मई को सिनेमाघरों में रिलीज़ हो रही है।

मेरा कोई राजनीतिक स्टैंड नहीं है, लेकिन बतौर फिल्ममेकर मैं स्टैंड लेता हूँ : जैगम ईमाम

फ़िल्म नक्काश और जैगम ईमाम की ज़िंदगी व फिल्मी कैरियर के बारे में अक्रॉस टाइम्स के संवाददाता ने पूछ तो उन्होंने बताया कि मेरा कोई राजनीतिक स्टैंड नहीं है, लेकिन बतौर फिल्ममेकर मैं स्टैंड लेता हूँ।

प्रश्न : नक्‍काश किस जोनर की फिल्‍म है, फिल्‍म के बारे में थोडा तफसील से बताएं ?

उत्तर: ये एक सोशल पॉलिटिकल ड्रामा है। सीधे शब्दों में कहें तो सामाजिक फ़िल्म है लेकिन ट्रीटमेंट के लिहाज़ से सोशल पॉलिटिकल थ्रिलर भी कह सकते हैं। नक्काश बनारस में बेस्ड है और इसके केंद्र में एक मुस्लिम किरदार अल्लाह रक्खा सिद्दीकी है जो मंदिरों में नक्काशी का काम करता है। अल्लाह रक्खा और उसके पूर्वज लंबे अर्से से ये काम करते आ रहे हैं। अल्लाह रक्खा को उसके काम में ट्रस्टी भगवान दास वेदांती का संरक्षण प्राप्‍त है। मठ के अध्यक्ष वेदांती अल्लाह रक्खा से प्यार करते हैं और बतौर कलाकार उसे बड़ा सम्मान देते हैं लेकिन बदलती हुई राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के बाद अल्लाह रक्खा का मंदिर में जाना कितना मुश्किल होता है और उसे दोनों समुदायों का कट्टरपंथियों का विरोध भी झेलना पड़ता है। उसके अपने लोग यानि मुसलमान उससे इस बात से नाखुश हैं कि वो एक मुस्लिम होते हुए भी मंदिर में काम करता है तो वहीं हिंदू धर्म के कुछ लोगों को इस बात से आपत्ति है कि मंदिर के गर्भगृह में मुसलमान का काम करना सही नहीं है। कबीर के शहर बनारस में दोनों समुदायों के बीच पिस रहे अल्ला रक्खा का क्या होता है यही आगे की कहानी है। क्या वो नक्काशी जारी रख पाता है या फिर उसे हालात के आगे सिर झुकाना पड़ता है। 

प्रश्न : दोजख, अलिफ और अब नक्‍काश तीनों फिल्‍मों के केंद्र में बनारस है, इसकी कोई खास वजह ?
प्रश्न : बनारस को चुनने की कई वजहे हैं। पहली तो यह कि मैं खुद बनारस से हूं और लंबे अर्से तक वहां के सामाजिक बदलावों को देखा है। दूसरी और सबसे बड़ी वजह यह कि देश में बनारस को सांस्कृतिक राजधानी का दर्जा प्राप्त है। देश में गंगा जमुनी तहजीब की बात बिना बनारस के पूरी नहीं हो सकती है। कबीर के इस शहर में हिंदू मुस्लिम रिश्ते और उनके बीच के सामाजिक ताने बाने को जितनी अच्छी तरह से समझा जा सकता है मेरे ख्याल से कहीं और मुमकिन नहीं है। मेरी अब तक कि फिल्में देश में हिंदू मुस्लिम के रिश्तों बदलावों और कट्टरता पर कड़ी चोट से जुड़ी रही हैं। मुझे लगता है कि अगर बनारस न होता तो मैं अपनी कहानियां कभी कह नहीं सकता।  

प्रश्न : आपकी तीसरी फिल्‍म रिलीज को तैयार है, खुद को कहां पाते हैं, कैसा एक्‍सपीरियेंस रहा ?
उत्तर : फिल्म मेकिंग अपने आप में मुश्किल काम है। उससे भी ज्यादा मुश्किल है एक के बाद अच्छी फिल्में बनाना। पहली फिल्म में आपके ऊपर दबाव कम होता है। आप ये कहकर भी छूट सकते हैं कि नए है लेकिन दूसरी तीसरी फिल्मों में परफॉर्म करना बेहद जरूरी है क्योंकि फिर कोई भी आपको इस बात की छूट नहीं देगा। जहां तक खुद को कहां पाते हैं का सवाल है तो काफी बेहतर पोजीशन में हूं। सिनेमा एक बहुत बड़ा माध्यम है और इसे समझना आसान नहीं है। धीरे धीरे सीख रहा हूं यही कह सकते हैं। इन सब बातों के बीच इस बात की खुशी भी होती है कि तीन फिल्में बना चुका और पब्लिक ने काफी सराहना की और प्यार दिया। एक फिल्ममेकर को और क्या चाहिए। 

प्रश्न : डिफरेंट जोनर की फिल्‍में बन रही इन दिनों ,ऐसे में आप किस तरह के ऑडिएंस को टारगेट कर फिल्‍म बनाते हैं ?
प्रश्न : देखिए भारतीय सिनेमा में सकारात्मक बदलाव आए हैं। मसाला फिल्मों के अलावा ऐसी फिल्मों को भी तरजीह मिल रही है जो समाज के उन अनछु, पहलुओं पर बात कर रही हैं जिनके बारे में लोग बात भी नहीं करना चाहते। जहां मेरी फिल्मों के आडिएंस की बात है तो मैं ये सोचकर फिल्में नहीं बनाता कि किस वर्ग को देखनी चाहिए या फिर किस वर्ग को नहीं। मेरी फिल्में हर कोई देख सकता है। 

प्रश्न : तीनों फिल्‍मों का केंद्र हिन्‍दू मुस्लिम है तो क्‍या इस फिल्‍म से दोनों समुदाय की दूरी बढेगी या घटेगी ?

प्रश्न : देखिए कला का मतलब ही सकारात्मकता फैलाना है। मेरी फिल्म उन मुद्दों उन नकारात्मक घटनाओं पर चोट करती है जिनकी वजह से समुदायों में दूरियां बढ़ रही हैं। आप फिल्म को देखकर सोचने पर मजबूर होंगे जाहिर सी बात है कि ये फिल्म आंखें खोलने वाली होगी और दोनों समुदायों के बीच दूरियां घटाएगी। जिस तरह पत्रकार, लेखक और दूसरी विधाओं में पारंगत कलाकार समाज में अपना अपना कांट्रीब्यूशन करते हैं ठीक वैसे ही एक फिल्म मेकर होने के नाते मैं अपना पार्ट निभा रहा हूं।


प्रश्न :  वर्तमान राजनीतिक परिदूश्‍य में यह फिल्‍म किस खाके में फिट बैठेगी ?
प्रश्न : देखिए जहां राजनीतिक परिदृश्य का सवाल है तो एक फिल्म मेकर होने के नाते मैं अपने आपको राजनीति से दूर रखता हूं। बतौर फिल्ममेकर मेरा राजनीतिक स्टैंड नहीं है, हां बतौर फिल्म मेकर मैं स्टैंड लेता हूं, जो आपको मेरी फिल्मों में दिखता है। आजके राजनैतिक परिदृश्य ने सामाजिक देश के सामाजिक ढांचे को प्रभावित किया है ये बात आपको नक्काश में भी दिखेगी अब इसका कोई किस तरह से मतलब निकालता है ये उसके ऊपर निर्भर करेगा। 

प्रश्न : ऐसा भी तो हो सकता था कि मस्जिद में किसी हिंदू को काम करते दिखाते ?
उत्तर : बिल्कुल हो सकता है। लेकिन नक्काशी की जिस कला को मैंने अपनी कहानी का बैकड्राप बनाया उसमें मेरे पास इस तरह का कोई उदाहरण नहीं था। मैं पेशे से एक पत्रकार रह चुका हूं। पहले मैं बनारस के मंदिरों में नक्काशी करने वालों पर डाक्यूमेंट्री बनाना चाहता था, लेकिन बहुत सारे लोगों ने जब कैमरे पर इस बारे में बात करने से इंकार कर दिया तो फिर मैंने फिल्म बनाने की सोची। वैसे सच कहूं तो मेरे ख्याल से  मेरी फिल्में हिंदू मुस्लिम एकता की मिसाल होती हैं फिर चाहे मुस्लिम मंदिर में काम करे या फिर हिंदू मस्जिद में मेरे लिए ये दोनों बातें एक जैसी ही हैं। 

प्रश्न : फिलवक्‍त के सामाजिक माहौल में आपकी फिल्‍म कितनी साकारात्‍मक ऊर्जा भरेगी ?
उत्तर : देखिए मैं ये कहना चाहूंगा कि मेरी फिल्म आज के माहौल में आंखें खोलने वाली साबित होगी। हमारे देश का लंबा सांस्कृतिक इतिहास रहा है। सर्व धर्म समभाव और वसुधैव कुटुंबकम हमारी रग रग में है ऐसे में नक्काश फिर से उसी चेतना को जगाने वाली फिल्म होगी जो हमें बताती है कि हम हिंदू या मुसलमान होने से पहले इंसान हैं और हिंदुस्तानी हैं।

ज्ञान प्रकाश ( सम्पादक)
अक्रॉस टाइम्स हिंदी समाचार पत्र

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