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Friday, May 4, 2018

परमार्थ मे अहंकार से गृहस्थी,अहंकार हटाने पर परमार्थ सिद्धि होती है : श्रीब्रह्मचैतन्य गोदवले कर महाराज

कानपुर से मधुकर मोघे की रिपोर्ट
अक्रॉस टाइम्स हिन्दी समाचार पत्र
कानपुर  । महाराज श्री ने कहा स्वार्थ मूलक न हों । स्वार्थ में हमेशा अभिमान जागृत रहता है । स्वार्थी को संसार में सुख कभी नहीं मिलेगा । नीति के बंधनों का पालन करो । परस्त्री को माता समान मानो । गृहस्थी में एक-पत्नी व्रत का पालन करने वाले ब्रह्मचारी ही होते हैं ।  दुसरों के धन की अभिलाषा मत करो । उसे मैले के समान मानों । दुसरों के धन की अभिलाषा करना अत्यंत घातक है, केवल इसकी कल्पना भी भयानक है ।  परस्त्री, पर-द्रव्य की तरह परनिंदा भी अत्यंत त्याज्य है । परनिंदा से हम अपना ही घात करते है । पर-निंदा में दुसरों के दोषों का चिंतन होता है  अतः वे दोष हम में भी निर्माण होते हैं ।  उपर्युक्त सभी बातों से सावधान रहकर नामस्मरण करो, इससे तुम्हारे भीतर नाम का प्रेम जरुर निर्माण होगा । यह सब करते हुए तुम्हारे माता-पिता, बाल-बच्चे, पत्नी, इनके बारे में तुम्हारा जो कर्तव्य है, उसकी पूर्ति करो, किन्तु इन सभी बातों में आसक्ति मत रखो । किसी भी प्रकार की फल की, स्वार्थ की भावना न रखते हुए जो काम किया जाता है, उसे ही कर्तव्य कहते हैं । उस कर्तव्य का पालन नीतिधर्म के अनुसार करो और अपनी गृहस्थी भी संभालो और भगवान का स्मरण करना न भूलो ।  फिर तुम्हारी गृहस्थी परमार्थ रूप बनेगी, तुम्हें भगवान का प्रेम प्राप्त होगा। मैं जो यह कह रहा हूँ , उसपर भरोसा रखो।गृहस्थी नमक की तरह है ।  रोटी में नमक कितना मिलाना पड़ता है ? बहुत थोड़ा – केवल स्वाद मात्र के लिए ।  किन्तु हम नमक की रोटी बनाते है, और उसमें परमार्थ रूपी आटा चंगुल भर डालते है, तब वैसी रोटी क्या हम खा पाएंगे? जब सच्चा संतोष मिलता है तब मनुष्य खेल की तरह गृहस्थी संभालता है ।  खेल में हम कभी नीचे गिरते हैं , कभी ऊपर उठते हैं , बस उसी तरह गृहस्थी में अवनति या उन्नति हो उसे दुःख-सुख नहीं होता । खेल में दूसरा जब दाँव लगाएगा तो वह भी दाँव चलाएगा ।  किन्तु दाँव हारने या जीतने की उसे चिंता नहीं होगी । गृहस्थी में बहुत वस्तुएँ हैं किन्तु भगवान् के पास एक ही वस्तु है । गृहस्थी में कितनी ही वस्तुएँ लाओ, उसकी पूर्तता नहीं होती क्योंकि एक वस्तु के लाने में दूसरी वस्तु का बीज है ।  किन्तु भगवान् का वैसा नहीं है । भगवान् की वस्तु आप एकबार ले आए कि दूसरी बार लाने की जरुरत नहीं ।  मानों एक दुकान में काफी माल भरा हुआ है किन्तु हमें जो वस्तु चाहिए वह वहाँ नहीं  है, तो अपनी दृष्टी से वहाँ कुछ भी नहीं ।  उसी प्रकार सभी प्रकार की मानसिक शक्तियाँ होने पर भी यदि वहाँ भगवान् का अधिष्ठान नहीं होगा तो उन सारी शक्तियों का होना न होना समान है ।  परमात्मा को गृहस्थी में ढालने के बजाय गृहस्थी को  परमात्मा में विलीन कर देने में ही जन्म की सफलता है |

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