जबलपुर। किसी भी स्थान का नामकरण कुछ ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों के नाम पर रक्खा जाता रहा ऐसा ही जबलपुर का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना कि धर्मनगरी काशी, पाटलीपुत्र, मगध आदि व अन्य ऐतिहासिक नगरों का है। पौराणिक आधार पर देखें तो भृगु ऋषि की तपस्या स्थली भेड़ाघाट और प्रकृतिवादी कथित जाबाली ऋषि का नाम जबलपुर से जुड़ा हुआ है। बताते चले तीन सौ इकीस ईसा पूर्व चन्द्रगुप्त मौर्य ने जब मगध के राजा नंद को पराजित किया तब उनका राज्य नर्मदा के तट तक फैला हुआ था। जबलपुर नगरी कभी गढ़ा गोंडवाना, तो कभी त्रिपुरी के नाम से जानी जाती रही है। यहां कई कलचुरी राजा हुए, जिन्होंने हिमालय से लेकर सागर के तट तक समस्त राज सत्ताओं को त्रिपुरी के अधीन कर दिया था।इनका था जबलपुर से संबंध, मिलता हैं शिला लेख273 ईसा पूर्व में सम्राट अशोक ने बहोरीबंद के निकट रूपनाथ में अपना 256 वां पड़ाव डाला था। यहां लगे एक शिलालेख में सम्राट अशोक ने लिखवाया था कि परिम से नीचे से नीचा व्यक्ति भी ऊंचा स्थान पा सकता है। ईसा पूर्व 94 में जब मौर्य वंश का अवसान हुआ, तब उनसे जो जनपद अलग हुए उनमें त्रिपुरी का भी उल्लेख है।त्रिपुरी में कलचुरि वंश ने शासन की शुरूआत सन् 249 से की।कलचुरी वंश अपने को सहस्त्रार्जुन का वंशज बताता है, जिन्होंने लंकापति रावण को बांधकर रखा था। कलचुरियों की राजधानी भेड़ाघाट रोड स्थित तेवर रही। इनका शासन करीब एक हजार साल तक चला। सन् 875 में कोकल्यदेव राजा हुए। कलचुरी काल में राजा लक्ष्मण राज का शासन 950 में रहा, जिन्होंने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार पूर्व से लेकर पश्चिम के समुद्र तट तक किया। सन् 1019 में गांगेयदेव ने राज्य की सीमाओं को बढ़ाते हुए दक्षिण में कर्नाटक और उत्तर में समूचे उत्तर भारत तक बढ़ाया। गांगेयदेव की वीरता नेपाल जा तक पहुंची थी। 1030 में जब अरबी विद्वानअलबरूनी आया, तब उसने गांगेयदेव की वीरता का बखान अपनी पुस्तक में किया था। 1041में गांगेयदेव का लड़का कर्णदेव गद्दी पर बैठा, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप के तीन हिस्सों तक अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। कर्णदेव ने दक्षिण के चोल, पांड्य, मालावार के मुरलो, कोयम्बटूर के कुंग, कांगड़े के कीर, पंजाब के हूण, मालवा के भोज जैसे अनेक राजाओं को त्रिपुरी की सत्ता के अधीन किया।आज भी मौजूद हैं इस वंश की निशानियांकलचुरी काल में शिल्पकला को विशेष महत्व दिया गया। तेवर, हथियागढ़, भेड़ाघाट में चौसठ योगिनी मंदिर एवं वरेश्वर शिव की प्रतिमा, अमर कंटक का केशव नारायण मंदिर, गोपालपुर के मंदिर, कटनी बिलहरी, रूपनाथ,नोहाटा, कारीतलाई, काशी का कर्णमेरू मंदिर जैसे स्थानों पर जितने भी प्राचीन मंदिर व मूर्तियां हैं, वे सभी कलचुरी काल की देन हैं।देश के कई संग्रहालयों में आज कलचुरि कालीन शिल्पकला धरोहर के रूप में रखी है।
विश्वास राहतेकर स्टोरी राइटर
अक्रास टाइम्स हिंदी समाचार पत्र